फिर एक वक़्त आता है... जब रफ्तार की ज़रूरत नहीं रह जाती, चलते रहना ही काफी लगता है। अब मंज़िलें नहीं बदलतीं, नज़रिया बदल जाता है। अब जीतना ज़रूरी नहीं लगता, रिश्ते निभाना सुकून देने लगता है। न किसी को पछाड़ने की जल्दी है, न किसी से दूर भागने की वजह। बस जो अपने हैं, उन्हें थामे रखना है। अब दोस्ती में कसौटियाँ नहीं होतीं, भाईचारे में कोई मुकाबला नहीं होता, और रिश्तों में खुद को साबित करने का डर नहीं होता। जो बिछड़ गए, उन्हें अब समझ लिया जाता है, जो साथ हैं, उन्हें दिल में जगह मिल जाती है। खुद पर संदेह अब समझ में ढल चुका होता है, अब अपने फ़ैसलों पर भरोसा होने लगता है। पहले जो सवाल था — “क्या मैं सही हूँ?”, अब जवाब बन चुका है — “जो हूँ, वही ठीक है।” ईश्वर अब डराने वाला नहीं, साथ चलने वाला बन गया है। दुआएं अब ख्वाहिश नहीं, शुक्रिया बन गई हैं। अब पाप और पुण्य किसी धार्मिक किताब की परिभाषा नहीं, ज़िंदगी के अनुभव बन चुके हैं। गलतियाँ अब बोझ नहीं लगतीं, वो हमारे सीखने की सीढ़ियाँ बन चुकी हैं। अब मन बेचैनी में शांति नहीं ढूंढ़ता, बल्कि शांति ही उसकी मंज़िल बन गई है। और हाँ... अब ज़िन्दगी म...