८० घंटे …………. अद्भुत अनुभव…………
८० घंटे …………. अद्भुत अनुभव…………
काफी
सारी अड़चनों के बाद आखिरकार
हमारी बहुप्रतीक्षित साहसी यात्रा का संयोग बन
ही गया। मैं (नीलाभ)
और मेरा मित्र शैलेश
२७ मई २०१७ को
दिल्ली की तपती गर्मी
को छोड़कर एक अत्यंत ही
ठंडक भरी और सुकून देने वाली यात्रा पर
निकलने वाले थे। यद्दपि इस यात्रा का मकसद कुछ
दिन एक शांत और
एकांत वातावरण में व्यतीत करने
का था ताकि तन
और मन को शांत
किया जा सके और
शांत मन से वापिस
कर्मस्थली में आया जा
सके।
गौतम
बुद्ध ने कहा है कि
“इस
अस्थिर विश्व में अपने आप
को स्थिर रखो और हर
पल हर क्षण को
पूर्ण चेतना से जियो”, शायद
उसी स्थिरता की खोज इस
यात्रा का उद्देशय था,
कम से कम मेरे
लिए तो था ही।
यद्दपि,
इतना आसान नहीं था
इस यात्रा पर जाना क्योंकि,
कभी मै अपनी पारिवारिक
जिम्मेदारियों की वजह से
नहीं जा पा रहा
था, कभी शैलेश का
परिवार अपने भय की
वजह से, जैसे की
कार से मत जाओ,
बस से जाओ, ज्यादा
ऊपर पहाड़ो में मत जाओ।
लेकिन मेरा विश्वास है
कि सब पूर्व निर्धारित
है, इसीलिए हमे इस यात्रा
पर जाना था इसीलिए
जा पाए। क्योंकि पहाड़ो
में जाना और खासकर
स्वयं कार चलकर जाना
मुझे बहुत उत्साहित और
आकर्षित करता है।
चलिए
फिर यात्रा शुरू करते है:
प्रथम दिवस:
27 मई
४
बजे
सुबह,
शनिवार
मैंने
अपनी कार एस्टिलो से
जाना ही निश्चित किया, क्योंकि मुझे अपनी कार
की आदत हो गयी
थी और पूरे रस्ते
मुझे ही ड्राइव करनी
थी। हम ने तड़के
४ बजे वैशाली मेट्रो
स्टेशन से यात्रा प्रारम्भ
की और दिल्ली के
रास्ते होते हुए ,पानीपत
चंडीगढ़ हाईवे पकड़ा। सूर्योदय से पहले यात्रा
पर निकल जाना और
कुरक्षेत्र के आस पास पहुंच
कर जब सूर्योदय हुआ
तो एक अलग सकारात्मक
ऊर्जा मिली सूर्य की
प्रथम किरणों को प्राप्त करके।
यह एक सन्देश देता
है की कुछ भी
हो जाये, नयी सुबह हमेशा
होती है।
८ बजे सुबह होते
होते हम अम्बाला से
आगे पहुंचे तो हमने अपना
नाश्ता किया पंजाबी ढाबा
पर पंजाबी परांठो के साथ। उसके
बाद हम 9:३० बजे
सुबह मनसा देवी मंदिर,
चंडीगढ़/पंचकूला में पहुंचे और
माता के दर्शन करके,
माता को धन्यवाद दिया
और आशीर्वाद प्राप्त किया। फिर हमने अपनी
यात्रा का अगला पड़ाव
शुरू किया यह सोच
कर की शाम होते
होते जहा तक पहुंच
जायेंगे वही पर रात्रि
विश्राम कर लेंगे। पंचकूला
से चलने के बाद
कालका आया, जहा से
शिमला के लिए टॉय
ट्रेन भी चलती है,
फिर बीच में सोलन
,कंडाघाट ,शोघी होते हुए
,शिमला (२३०० मीटर समुद्री
तल से ऊंचाई) आया
लेकिन जैसे ही हम
शिमला में प्रवेश हुए
,बहुत भरी ट्रैफिक का
सामना करना पड़ा क्योंकि हर कोई शिमला ही
पहुंचना चाह रहा था
ऐसे गर्मी के मौसम में।
और इसी बीच हमे
दोपहर का भोजन करने
का भी समय और
मौका प्राप्त नहीं हुआ.जैसे।
तैसे करके हम शाम
को ६ बजे कुफरी
(२३०० मीटर समुद्री तल
से ऊंचाई ) तक पहुंचे और
वही होटल ले कर
विश्राम करने के बाद
शाम का नाश्ता या
यु कहे की लंच
किया और कुछ पल
शांत एवं शीतल कुफरी
के वातावरण का एहसास किया।
वास्तव में बहुत ही
खूबसूरत है कुफरी, और
हाँ यहाँ आ कर
एहसास हुआ की सर्दियों
में बर्फ गिरने के
बाद किस हद तक
कुफरी और सुन्दर और
दर्शनीय हो जाता होगा,
कुफरी क्योंकि शिमला के हरित संरक्षित
वन क्षेत्र में आता है
इसीलिए यहाँ बहुत ही
घने देओदार के वृक्ष है
और बहुत ही ऊंचाई
पर है। लेकिन बहुत
ही सुन्दर और मनोहर दृश्य
है जो दिल को
सुकून पहुंचते है। फिर किया
था, इसी सुकून और
शीतलता के साथ हम
ने कुफरी में रात्रि व्यतीत
की।
द्वितीय दिवस:
२८
मई,
5 बजे
सुबह,
रविवार
पहाड़ो
का वातावरण अद्भुत है, इतनी शुद्ध
हवा, इतनी तरोताज़गी के
सभी स्वस्थ्य समस्या यहाँ आ कर
दूर हो जाती है,
जैसे की दिल्ली में
रहने पर वायु प्रदुषण
से होने वाली सारी
समस्या कुफरी पहुंचते ही दूर हो
गयी, सुबह ५ बजे
कुफरी में सूर्योदय होता
है और अद्भुत नजारा
देखने के मिलता है
सुन्दर ऊँची ऊँची पहाड़ियों
का। पहाड़ियाँ ऐसे चमक ने
लगती है जैसे की
हिमाचल प्रदेश की महिलाओं के चेहरे का
तेज और सुन्दरता चमकती
है। हमारा अगला पड़ाव था
नारकंडा (२710 मीटर समुद्री
तल से ऊंचाई ) जो
कुफरी से ४५ किलोमीटर
और आगे था, लेकिन
किसी ने हमे बताया
की कुफरी में देसु माता
का मंदिर है एक सब
से ऊँची छोटी पर,
फिर हम ने सोचा
वह से होते हुए
आगे बढ़ते है। यक़ीनन,
देसु माता का मंदिर
अचानक से कड़ी चढाई
पर १२००० फ़ीट की उंचाईं
पर है और थोड़ी
दूर सड़क के बाद
४०० सीढ़ियों से जाना होता
है और वहा पहुच
कर जो अनुभव हुआ
वह अद्भुत था। सर्दी
अचानक से बढ़ गयी
और साँस फूलने लगी
और कोहरा और बादल हँमारे
सामने आ कर खड़े
हो गए। ऐसा लगा
की यहाँ से कही
जाने का मन ही
नहीं हुआ। कुछ समय
यहाँ गुजरने के बाद, हम
नारकंडा (२710 मीटर समुद्री
तल से ऊंचाई) के
लिए चल निकले, जो
कि शिमला से भी ज्यादा
ऊंचाई पर है। फागु,
थेओग और मत्याना जैसे
छोटे छोटे कस्बो से
होते हुए हम लगभग
११ बजे नारकंडा पहुंच
गए।
वहा
जा कर सब से
पहले ब्रेकफास्ट करने का मन
हुआ। फिर वही थोड़ा
सा निरीक्षण करने के बाद
बस स्टैंड के पास हिमालयन
रेस्टोरेंट (NEGI’s ) में ब्रेकफास्ट किया।
अच्छा फॅमिली रेस्टोरेंट है और खाना
बहुत ही स्वादिष्ट है,
रेस्टोरेंट के बैक साइड
में हम ने विंडो
सीट को चुना और
जब तक हमारा नाश्ता
टेबल तक आता, मैंने
खिड़की से बहार एक
टाक लगाए कुछ देखा
तो दूर बहुत ऊँची
ऊँची पहाड़ियों पर सफ़ेद सफ़ेद
कुछ दिखाई दिया, शुरू में मुझे
महसूस हुआ की वो
शायद बादल की टुकड़ियां
है जो उन ऊँची
पहाड़ियों के ऊपर आ
कर रुक गयी है
लेकिन कुछ देर तक
लगातार टक टाकी लगाए
हुए फिर साफ दिखाई
दिया कि में जो
देख रहा था वह
बर्फ की चोटियां थी
जो लगभग ५५०० मीटर
की हाइट पर थी
और पूरी तरह बर्फ
की ही चोटिया थी
शाश्वत। लगभग 1 किलोमीटर के दायरे
में फैली हुई इन्ही
चोटियों में सबसे ऊँची
श्रीखंड महादेव की थी। विश्वास
नहीं हो रहा था
की जिस स्थान पर
हमारी यात्रा का अंतिम पड़ाव
( सराहन -भीमाकाली मंदिर ) था, वही जगह
स्थित हिम खंडो को
हम नारकंडा से देख पा
रहे थे।
नाश्ता
करने के पश्चात हम
लोग नारकंडा में ही स्तिथ
हातु माता मंदिर के
लिए निकले जो की ६
किलोमीटर की दूरी पर
था लेकिन इन ६ किलोमीटर
में २७०० मीटर की
हाइट से एकदम ३४०० मीटर की
हाइट पर पहुंचना था
रोड से जोकि एक
दम खड़ी चढ़ाई थी
और उस दिन हातु
माता मंदिर में स्थानीय मेला
और त्यौहार होने की वजह
से सभी लोग हातु
माता के मंदिर में
जा रहे थे इसीलिए
बहुत ही लम्बी लाइन
लगी हुई थी वाहनों
की और यह एक
अत्यंत ही मुश्किल चढ़ाई
लग रही थी जब
हम अपनी कार से
ऊपर चढ़ रहे थे क्योंकि अगर आगे वाले
वहां ने जरा भी
गलती की तो जानलेवा
साबित हो सकती थी।
और ऐसा ही कुछ
होते होते बचा जब
आखिरी २ किलोमीटर की
चढ़ाई शेष रह गयी
थी और हम से
आगे वाले वाहन में
चला रहा व्यक्ति घबराया
गया। तब मैंने एक
मोड़ के पास बनी
जगह पर ही गाडी
को पार्क कर के आगे
पैदल जाने ही उचित
समझा। और यकीन माने,
पैदल चल कर ऊपर
तक पहुंचने में अलग ही
आनंद महसूस हुआ। और यह
निर्णय भी सही साबित
हुआ।
मंदिर
पर पहुंचते पहुंचते मौसम
बदल चुका था और
बदल और वर्षा और
धुंध का वातावरण था
और तापमान भी इतना कम
हो चूका था जितना
की यहाँ दिल्ली में
जनुअरी में होता है।
परन्तु एक अद्भुत अनुभव
था इतनी ऊंचाई तक
पहुंचना और फिर हम
ने हातु माता के
दर्शन किये और विधिपूर्वक
प्रसाद अर्पित किया। फिर
कुछ देर वह शांत
पालो में बैठ कर
प्रकृति के नजरो का
आनंद उठाया और विचारमग्न हो
गए उस बेहद खूबसूरत
पालो में। आप यकीन
नहीं करेंगे ,इस रास्ते में
कुछ बेहद ही खूबसूरत
दृश्ये मिले ,जिनको देख कर आप
महसूस करेंगे की शायद आप
ऐल्प्स पर्वत यूरोप के स्विट्ज़रलैंड में
हो।
यहाँ
क्लिक कर के आप
इस मंदिर और यहाँ के
नजरो के दृश्यों का
आनंद उठा सकते है
आखिरकार
लगभग ३ बजे हमने
हातु पीक से वापसी
शुरू की और ४
बजे वापिस नारकंडा आने के बाद,
हमने नारकंडा में पेट्रोल फिल
कराया क्योंकि आगे पता नहीं
की कहा पर पेट्रोल
उपलब्ध हो और फिर
हमने सराहन के लिए आगे
की यात्रा शुरू की। नारकंडा
से सराहन १०० किलोमीटर दूर
है। नारकंडा
से आगे चलने पर
लुहरी जगह से सतलुज
नदी हमारे रास्ते से मिल गयी
और रामपुर बुशहर आने तक बराबर
बराबर सतलुज नदी के पानी
के आवाज भरपूर आती
रही और कुछ जगहों
पर हम ने ब्रिज
भी पार किये और
अत्यंत ही विहंगम दृश्य
प्रस्तुत हो रहे थे
प्रकृति के। कुछ समय
पश्चात हम रामपुर पहुंचे
जो शिमला के बाद पहला
प्रमुख शहर है नेशनल
हाईवे ५ पर। रामपुर
काफी नीचे हाइट पर
है और नारकंडा से
रामपुर तक हम लगभग
नीचे ढलान पर ही
गाडी चला रहे थे
और नारकंडा की २७०० मीटर
हाइट से अब हम
रामपुर की १००० मीटर
की हाइट पर आ
चुके थे,और इतना
नीचे उतरने पर वह लगभग
अपनी दिल्ली जैसी ही गर्मी
का एहसास होने लगा था।
लेकिन जैसे ही हमने
रामपुर को पार कर
के आगे की तरफ
चले नेशनल
हाईवे ५ पर तब
फिर से चढ़ाई शुरू
हो गयी और सर्दी
भी फिर से बढ़
ने लगी, थोड़ी देर
के बाद प्रसिद्ध नाथपा
झाकड़ी डैम आया जहा
सतलुज नदी पर डैम
बनाकर विधुत का उत्पादन किया
जाता है, यह हिमाचल
की सबसे बड़ी जल
बिजली परियोजना है। और
फिर यहाँ से पहाड़ो
की प्रवर्ति बदलती जा रही थी,
पहाड़ और सख्त होते
जा रहे थे और
हरियाली कम होती जा
रही थी क्योंकि यह
थोड़ा थोड़ा चीन के
बॉर्डर के पास होता
जा रहा था और
रास्ते भी दुर्गम होते
जा रहे थे हालांकि
शिमला के भयंकर ट्रैफिक
के बाद कुफरी नारकंडा
रामपुर आते आते ट्रैफिक
बहुत कम हो गया
था, और अब रामपुर
से आगे तो बिलकुल
ही खत्म हो गया
था। अब हमे ३०
या ४० मिनट में
ही कोई वाहन सामने
से आता दिखाई दे
रहा था और वह
भी अधिकतर ट्रक्स या सरकारी ट्रक्स
ही दिखाई देते थे। रास्ते
में मौसम भी बदल
चुका था और अचनका
से ओलावृष्टि होने लगी और
ऐसे में कार चलना
मुश्किल हो रहा था
लेकिन मैं चलता रहा
यह सोच कर की
"हौसले वो हौसले क्या जो सितम से टूट जाये "
हालांकि
मैं अभी तक, इस
यात्रा से पहले, ऋषिकेश
और मसूरी -> धनोल्टी -> नई टेहरी के
पहाड़ी रास्तो पर ही स्वयं
गाडी चला कर गया
था, जिससे मुझे उचित अनुभव
और विश्वास आ गया था
पहाड़ो में ड्राइव करने
का, लेकिन फिर भी मुझे
पता था की यह
यात्रा और इस यात्रा
के दुर्गम स्थान मेरे लिए नए
और चुनौती भरे होंगे लेकिन,
शायद यही चुनौतियां मुझे
डरने की बजाय आगे
बढ़कर उनको फतह करने
की हिम्मत देती है। और
साथ में मेरा मित्र
शैलेश, मैं जानता था
नारकंडा तक वो थोड़ा
असहज और थोड़ा ठीक
महसूस कर रहा था
और इन रास्तो का
भरपूर आनंद उठा रहा
था, लेकिन हातु माता पीक
की उस अत्यंत खतरनाक
चढ़ाई ने उसकी हालत
थोड़ी सी ख़राब कर
दी थी और वह
थोड़ा और ज्यादा असहज
हो गया था लेकिन
वह मुझ पर पूरा
विश्वास रखे हुए था
और अब तक शायद
वह जान गया था
की मैं किसी भी
ख़राब रोड और कितनी
भी दुर्गम चढाई को आराम
से पार कर सकता
हूँ कार ड्राइव करते
हुए। उसने मुझे यह
बताया भी की मेरा
गाडी चलने का कौशल
और आत्म विश्वास अच्छा
है और
यह सुन कर मुझे
भी और विश्वास आ
गया, लेकिन में थोड़ा और
सतर्क भी हो गया।
इसी
बीच रास्ते में हम लोग
बातें किये जा रहे
थे हर विषय पर,
अपनी व्यक्तिगत भी और, जॉब
की, पॉलिटिक्स
की, देश के और
पूरे विश्व की भी। और
यही सब करते करते,
लगभग शाम 6:४५ बजे हम
जेओरी पहुंचे जो राष्ट्रीय राजमार्ग
५ पर ही है
और जेओरी से ही सराहन
जाने का रास्ता अलग
हो जाता है। लेकिन
जैसे ही हम उस
कट पर पहुंचे वहा
हिमाचल विभाग का बोर्ड लगा
था, जिस वजह से
पता चला
की इस रास्ते पर
आगे नदी पर बना
लोहे का पल टूट
गया है, जिसकी वजह
से वो रास्ता बंद
हो गया है और
कम से कम 3-४
महीनो के लिए और
अब सराहन जाने के लिए
एक छोटा लेकिन दुर्गम
रास्ता है। यह रास्ता
एकदम खड़ी चढ़ाई का
था और कच्चा रास्ता
था बिना रोड के,
सिर्फ पत्थर ही पत्थर और तब तक
शाम का अँधेरा भी
हो चुका था, और
रास्ता देख कर शैलेश
ने बोला की रात
को यही
रुक जाते है और
सुबह को चलेंगे। मैं शायद
समझ गया था की
वो शायद अब कम्फ़र्टेबल
फील नहीं कर रहा
है और उसको यह
जोखिम भरा भी लग
रहा है। सच पूछो
तो मुझे भी उस
समय जाने में जोखिम
लग रहा था लेकिन
जेओरी एक बिलकुल छोटा
सा गांव है और
वहा रात बिताने के
लिए बहुत कम विकल्प
उपलब्ध है लेकिन हम
ने निर्णय किया रुकना और
फिर होटल की तलाश
शुरू की, और जैसे
तैसे एक सुरक्षित ठीक
ठीक होटल मिल ही
गया।
रात
को जब बात करने
लगे हम दोनों तब
मेरे मित्र ने संकोच के
साथ कुछ पूछा की
किया हमे आगे जाना
चाहिए या यही से
वापिस हो जाना चाहिए।
मैं समझ गया था
की वह किया कहना
चाह रहा था और
मैंने भी अपने से
पूछा की किया जाना
ठीक रहेगा। असल में रात
को पहाड़ो में ड्राइव करने
की सोच से जितना
दर लगता है सुबह
को ड्राइव करने की सोच
में उतना नहीं लगता।
मुझे पता था की
रास्ता दुर्गम होगा लेकिन फिर
सोचा की यहाँ तक
भी तो दुर्गम रास्तो
से होते हुए ही
आये है और क्योंकि ड्राइव मुझे ही करनी
थी तो मैं हमेशा
ये सोच कर आगे
बढ़ जाता हूँ की
एक कार को चलने के
लिए जितनी जगह चाहिए उतनी
तो होगी ही न
रोड पर तो फिर
चलते है ना, किया
दिक्कत है और हाँ
पहाड़ो में आपको सिर्फ
अपने सामने देखना होता है की
कहा पर तेज मोड़
है और कहाँ पर
खतरा है, यह नहीं
देखना होता की ऊपर
आने के बाद नीचे
कितनी गहरी खाई है। यह
सोच कर मैंने शैलेश
को बोला की मैं
यह कर सकता हूँ
और अगर किसी समय
पर लगा की मुश्किल
है तो फिर वापिस
हो लेंगे लेकिन बिना देखे या
बिना कोशिश किये वापिस नहीं
जा सकते। फिर शैलेश को
भी थोड़ा साहस आया
और हम ने आगे
जाने का निर्णय किया।
तृतीय दिवस:
२९
मई
२०१७,
७:१५
प्रातः,
सोमवार
और हम सुबह ७:१५ बजे जेओरी
से निकले सराहन भीमाकाली मंदिर के लिए सीढ़ी
चढ़ाई पर। यह लगभग
१७ किलोमीटर का रास्ता था
और ये नहीं पता
था की कितना रास्ता
अच्छी सड़क का है
और कितना कच्चा पत्थरो का है। लगभग ५
किलीमीटर सही सड़क पर
चलने के बाद अचानक
पक्की सड़क खत्म हो
गयी और कच्चा मोटे
मोटे पहाड़ी पत्थरो से भरा हुआ
रास्ता शुरू हो गया
और जहा भी मोड
आ रहा था वही
पर सीढ़ी चढ़ाई शुरू
हो जाती थी। मुझे
अभी भी ये नहीं
पता लग पाया की
पहाड़ो की ड्राइव में
जब मोड़ आते है
वही पर कियो एक
दम से सीढ़ी चढ़ाई
होती है.
फिर
थोड़ा और चलने के
बाद जब हम थोड़ी
ऊंचाई पर पहुंचे तब
एक तरफ से हलके
हलके बर्फ की चोटिया
दिखनी शुरू हुई ,मैंने
एक साइड से देखा
तो अद्भुत दृश्य था लेकिन फिर
मैंने निर्णय किया की अपने
गंतवय पर पहुंचने के
बाद ही मैं कुछ
देखूँगा क्योंकि उस रास्ते पर
जिंदगी दाव पर लगी
थी। फिर
लगभग ५ किलोमीटर उस
ख़राब रास्ते पर चलने के
बाद घर्राट जगह आयी जहा
से एक मोड़ आया
सराहन के लिए और
वह से फिर बढ़िया
सड़क थी, यह देखकर
मुझे थोड़ी रहत हुई
और फिर थोड़ा दूर
चलकर सराहन में ITBP का कैंप आ
गया मैं यह जिक्र
इसलिए कर रहा हूँ
की कभी काफी साल
पहले मेरे ससुरजी की
पोस्टिंग इसी कैंप में
थी उन्होंने कुछ समय यही
पर अपनी सर्विसेज दी
ITBP को। फिर हम आगे
बढ़ते गए और आखिरकार
हम भीमाकाली मंदिर, सराहन में लगभग ९
बजे सुबह पहुंच ही
गए।
भीमाकाली
मंदिर, काली माता को
समर्पित मंदिर है, इसके बारे
में ज्यादा जानकारी आप यहाँ दिए
गए लिंक को खोल
कर देख सकते है।
यह मंदिर बहुत ही प्राचीन
है और १९६२ में
इसका जीर्णोद्धार कराया गया। और यह
बुद्धिस्ट वास्तु कला का अदभुत
उदहारण है। अत्यधिक दुर्गम
स्थान पर होने की
वजह से यहाँ पर
एक साथ कभी भी
ज्यादा लोग नहीं होते,
इसीलिए आप सुकून से
यहाँ आ कर दर्शन
कर सकते है और
आराम से प्रसाद एवं
पूजा विधिपूर्वक सम्पन कर सकते है।
हमने भी अत्यंत ही
शांत और अच्छे वातावरण
में माता के दर्शन
किये और विधिपूर्वक प्रसाद
चढ़ाया। उसके बाद मंदिर
परिसर में ही हम
लोगो ने कुछ फोटोग्राफी
की। मंदिर परिसर से ही हिमाच्छादित
चोटियों के अदभुत दृश्य
दिख रहे थे। इन्ही
बर्फ की चोटियों के
विस्तार में श्रीखंड महादेव
नाम से भी एक
बर्फ की चोटी थी।
यहाँ पर लोग ट्रैकिंग
करने भी आते है।
यह ५५०० मीटर की
ऊंचाई पर है और
बहुत ही दुर्गम रास्ता
और विपरीत मौसम और सर्दी
से हो कर यहाँ
पहुंच सकते है। लेकिन
इन बर्फ की चोटियों
को दूर से देखने
का अलग ही आनंद
आ रहा था। एक
अद्भुत शान्ति और सुकून और
एक एकांत था यहाँ की
फ़िज़ाओं में। यहाँ पहुंचने
के बाद मेरे मित्र
शैलेश को भी अच्छा
लग रहा था, लेकिन
मैं जनता हूं कि
यहाँ तक पहुचने में
जो उसकी हालत हुई
होगी।
बहरहाल
काफी देर मैं वही
पर एक जगह बैठा
हुआ उन बर्फ की
चोटियों को देखता रहा
और कुछ विचारमग्न हो
गया हालांकि जब धूप निकली
होती है तब सफ़ेद
बर्फ पर धूप के
गिरने से वह बहुत
ही ज्यादा चमकदार हो जाती है
और लगातार देखना मुश्किल हो जाता है।
इतना ज्यादा ठंडा होने के
वजह से वह पर
बादल बनते रहते है
और फिर बीच बीच
में वो चोटियां चुप
जाती है बादल में।
जितना भी समय मैंने
यहाँ भीमाकाली मंदिर में बिताया उतने
ही समय ने मुझे
अपने अंतर्मन से बात करने
का मौका दिया और
मैंने स्पष्ट रूप से अपने
में कुछ बदलाव महसूस
किया। शायद यह सब
वहा की निर्मलता और
शांति की वजह से
था।
इसीलिए
इंसान शायद ऐसे जगहों
का रुख करता है
अपने अंदर मूल्यांकन करने
के लिए। मुझे जो
एहसास होता है पर्वतो
की यात्रा करने में वो
कुछ ऐसा होता है
जैसे आप जब इतने
बड़े बड़े पहाड़ो के
बीच जाते है तब
आप अपने को बहुत
छोटा अनुभव करते है इतनी
विशालकाय पहाड़ो और घने हरे
भरे जंगल में और
यह एहसास आपको अनुभव करता
है आपका अपने वजूद
का जो प्रकृति के
सामने कुछ नहीं है
और अगर है तो
प्रकृति से प्रेम करने
के लिए न की
भागदौड़ की जिंदगी में
अपने आपको बड़ा समझने
की भूल करना।
बहरआल
अभी तक लगभग दोपहर
के १२ बज गए
थे और मेरा मन
सराहन से और आगे
कल्पा होते हुए कौरिक
(जोकि इंडिया का बॉर्डर है
चीन के साथ) जाने
का हो रहा था क्योंकि सराहन आते हुए सड़क
पर कौरिक के मील के
पत्थर आ रहे थे
जो की अब यहाँ
से १९० किलोमीटर रह
गया था। शैलेश को
भी यह जगह बहुत
उत्साहित कर रही थी
लेकिन वहा जाने के
लिए हमे पूरा हफ्ता
चाहिए था क्योंकि वो
बहुत ही दुर्गम जगह
है और जिन बर्फ
की चोटियों को हम यहाँ
से देख पा रहे
थे अपनी आँखों से
बस कुछ ही दूर,
बस उन्ही चोटियों के बीच में
वो जगह है।
अब यात्रा का
दूसरा पड़ाव यानी वापसी
का समय आ चुका
था। इस जगह को
छोड़कर आप सारी जिंदगी
कभी नहीं जाना चाहोगे
लेकिन हमने वापसी शुरू
की और तभी एक
शॉप से जहा से
हमने कुछ खरीद की
थी उन्होंने रामपुर जाने का एक
दूसरा रास्ता बताया ताकि हमे फिर
से उस कच्चे और
खतरनाक रास्ते से न जाना
पड़े।
हमारी
कोशिश थी अगर सब
समय से चलता रहा
तो हम अँधेरा होने
से पहले कालका पहुंच
जायेंगे और फिर तो
सीधे रस्ते पर आराम से
कभी भी दिल्ली तक
पहुंच सकते है लेकिन
जीवन की आनिश्चितयों का
किसी को पता नहीं
होता। बहरहाल नारकंडा तक हम सही
समय पर पहुंच गए
और फिर हम ने
एक बार फिर उसी
रेस्टोरेंट में लंच किया
जिसमे हम ने नाश्ता
किया था एक दिन
पहले। नारकंडा से हमने हिमाचल
के लोकल फ्रूट चेरी
और कच्चे बादाम खरीदे। और लगभग 4:४५
शाम को हमने अपनी
आगे की यात्रा शुरू
की और अब शाम
होने लगी थी और
यकीन जानिये सुनहरे और धुंधलके सूर्यास्त
में बहुत ही खूबसूरत
दृश्ये बन रहे थे
घनी देवदार की वादियों में
और फिर धीरे धीरे
अँधेरा छा गया और
शिमला तक पहुंचते पहुंचते
७ बज गए और
हमने शिमला बाईपास को पकड़ा सीधा
बाहर निकलने के लिए। यकीन जानिए, शिमला
अब बिलकुल भी घूमने लायक
नहीं रह गया है,
हर समय भंयकर लम्बी
लम्बी व्हीकल्स की लाइन और
ट्रैफिक जैम २४ घण्टे
लगा रहता है और
इसी वजह से जाते
हुए भी हमारा समय
काफी ख़राब हुआ और
वापिस आते हुए भी
हो रहा था।
अब रात पूरी तरह
से हो गयी थी
और मुझे ड्राइव करने
में दिक्कत होने लगी क्योंकि मैं थक भी गया
था और सामने से
आती गाड़ियों की रिफ्लेक्शन खासकर
तीव्र मोड़ पर दिक्कत
पैदा कर रहे थे
सड़क का अंदाजा लगाने
में तभी हमे लगा
की रात को यही
कहीं रुक जाना ठीक
होगा लेकिन हम पूरा शिमला
क्रॉस करने के बाद "शोघी" एक
जगह पर एक होटल
में रुक गए। हालांकि
मैं शुरू से ही
वापिस आते हुए सोच
रहा था की शिमला
में रुक जायेंगे लेकिन
शैलेश ने जिस तरह
कहा की सीधा दिल्ली
चलने की कोशिश करते
है तो शायद मुझे
लगा की उसका अगले
दिन ऑफिस जाना जरूरी
है इसीलिए मैंने यही ठीक समझा
नहीं तो एक मन
ये ही था की
शिमला रिज और मॉल
रोड पर थोड़ी देर
घूमा जाये और शिमला
की सुंदरता और वह की
सुन्दरताओं को निहारा जाये।
चतुर्थ दिवस:
३०
मई
२०१७,
६:३०
प्रातः,
मंगलवार
सुबह
बड़ी ठंडी थी यहाँ
भी और हमे पुलोवर
पहनना ही पड़ा और
हम 6:३० सुबह शुरू
हुए वापसी के लिए, अभी
थोड़ा तरोताजा लग रहा था
और कालका और सोलन होते
हुए हम अब चंडीगढ़
दिल्ली हाईवे को पकड़ चुके
थे और फिर सीधे
हाईवे पर गाडी बहुत
तेज चला रहा था
और मुझे सीधे चलते
हुए भी पहाडों की
घुमावदार ड्राइव की आदात पड़
गयी थी और वही
दिमाग में बैठ गयी
थी। आखिर कार हम
लगभग १ बजे दोपहर
में वापिस अपने घर पहुंच
चुके थे लेकिन यहाँ
की मुश्किल गर्मी अब और भी
मुश्किल और निर्दयी लग
रही थी।
अवलोकन::
मित्रो मेरा ऐसा व्यक्तिगत अनुभव है की यात्रा सिर्फ घूमने फिरने से पूरी नहीं होती बल्कि यात्रा के दौरान होने वाले अनुभव और आने वाली स्थिति आपको बहुत कुछ सीखाती है जीवन के संघर्ष और उन से लड़ने की शक्ति और समाधान के लिए और यह तनाव को मुक्त करने का भी अच्छा अवसर होता है जहाँ आप तनाव मुक्त वातावरण में अपने आप का अवलोकन एवं आत्म मूल्यांकन कर सकते है और अपनी कमजोरिओं पर काबू पा सकते है।
Superbly describe!...
ReplyDelete