पिछले ७ महीनो से पूरे विश्व में और लगभग ५ महीनो से भारत में जो वातावरण बना हुआ है कोरोना विषाणु के प्रकोप से , वह मेरे पिछले लेख "जीवन की अनिश्चितताएं " का ही कदा चित यथार्थ रूप है और यह घटनाक्रम इसको सिद्ध भी करता है। जिस भी पीढ़ी का जन्म द्वितीय विश्व युद्ध (1939) के बाद हुआ है उनके लिए संभवतया ऐसा संकट और ऐसा एकाकीपन वाला माहौल पहली बार ही बन रहा है , और इस माहौल में हमारी ताज़ा तरीन युवा पीढ़ी को सबसे ज्यादा एकाकीपन और अवसाद का सामना करना पड़ रहा है कियोंकि पिछले कुछ दशकों में जीवन की गति जिस तरह से परिवर्तित हुई है उसने इसी युवा पीढ़ी को अधीर और असंवेदनशील यह अत्यधिक संवेदनहीन बनाया है। कुछ हद तक इस बात में सच्चाई नज़र आती है की कदा चित यह कोरोना विषाणु चीन द्वारा ही या तो निर्मित है यह उनकी किसी अनुसन्धान की गलती का नतीजा है जिसने पूरे विश्व को मजबूर कर दिया है घरो में बंद रहने के लिए हालांकि इस की वजह से हम काफ
८० घंटे …………. अद्भुत अनुभव………… काफी सारी अड़चनों के बाद आखिरकार हमारी बहुप्रतीक्षित साहसी यात्रा का संयोग बन ही गया। मैं (नीलाभ) और मेरा मित्र शैलेश २७ मई २०१७ को दिल्ली की तपती गर्मी को छोड़कर एक अत्यंत ही ठंडक भरी और सुकून देने वाली यात्रा पर निकलने वाले थे। यद्दपि इस यात्रा का मकसद कुछ दिन एक शांत और एकांत वातावरण में व्यतीत करने का था ताकि तन और मन को शांत किया जा सके और शांत मन से वापिस कर्मस्थली में आया जा सके। गौतम बुद्ध ने कहा है कि “इस अस्थिर विश्व में अपने आप को स्थिर रखो और हर पल हर क्षण को पूर्ण चेतना से जियो”, शायद उसी स्थिरता की खोज इस यात्रा का उद्देशय था, कम से कम मेरे लिए तो था ही। यद्दपि , इतना आसान नहीं था इस यात्रा पर जाना क्योंकि , कभी मै अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों की वजह से नहीं जा पा रहा था, कभी शैलेश का परिवार अपने भय की वजह से, जैसे की कार से मत जाओ, बस से जाओ, ज्यादा ऊपर पहाड़ो में मत जाओ। लेकिन मेरा विश्वास है कि सब पूर्व निर्धारित है, इसीलिए हमे इस यात्रा पर जाना था इसीलिए जा पाए। क्योंकि पहाड़ो में जाना और खासकर स्वयं कार चलकर जाना
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