प्रवृत्ति और निवृत्ति का संतुलन ही जीवन है
भारत में चिन्तन की सदा दो धाराएं रही हैं। एक धारा है प्रवृत्तिवाद और दूसरी है निवृत्तिवाद। प्रवृत्ति और निवृत्ति- यह वस्तु का स्वाभाविक पक्ष था। इसका अनुभव तो किया गया था, किन्तु अनुभव की कोई बात जब बुद्धि के स्तर पर चर्चित होती है, तब उसकी सूक्ष्मता खत्म हो जाती है, केवल स्थूलता बची रहती है। पूरे संसार में यही हुआ है कि स्थूल तत्व उभर कर सामने आ गए और जो रहस्य और सूक्ष्मताएं थीं, वे नीचे ही छिपी रह गईं। इस तरह प्रवृत्ति और निवृत्ति भी विवाद का विषय बन गया, जबकि इनमें विवाद जैसा कुछ नहीं है। यह जीवन की स्वाभाविक प्रक्रिया है। न केवल मानवीय जीवन की, परन्तु संपूर्ण प्राणी जगत की स्वाभाविक प्रक्रिया है। इतना ही नहीं, यह जड़ जगत की भी स्वाभाविक प्रक्रिया है। प्रत्येक पदार्थ में, जड़ या चेतन दो पक्ष होते हैं, पॉजिटिव और निगेटिव या विधायक और निषेधक। कोई भी शक्ति ऐसी नहीं होती, जिसमें ये दोनों न हों। विधायक पक्ष है हमारी प्रवृत्ति और निषेधक पक्ष है हमारी निवृत्ति। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में प्रवृत्ति और निवृत्ति के संतुलन की अपेक्षा की जाती है। जहां कहीं यह संतुलन बिगड़ता है, वहां बड़ी कठि...